Wednesday, 15 October 2014

काश्मीर के लिये कौन जिम्मेदार

दियों से कश्मीर को धरती का स्वर्ग माना जाता रहा है, और यहां आए जल-प्रलय ने इस बात को साबित कर दिया कि स्वर्ग भी नरक बनने का सामर्थ्य रखती है। बड़ा सवाल यह कि धरती के इस स्वर्ग को नरक बनने का सामर्थ्य किसने दिया? कश्मीर में जल-प्रलय के पीछे आखिर कौन सी शक्ति काम कर रही है? हमें इन सवालों से जूझना होगा और इससे सबक सीखना होगा।

जम्मू-कश्‍मीर में आई बाढ़ यहां बीते करीब छह दशकों में आई सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि धरती का स्वर्ग कहलाने वाले इस इलाके को नरक जैसे हालात का सामना करना पड़ रहा है? जानकारों का मानना है कि मानते हैं कि श्रीनगर और आसपास के इलाकों के अधिकारियों ने स्‍थानीय झीलों और जलाशयों के संरक्षण में बेहद लापरवाही बरतकर इस तरह की आपदा को दावत दी। राज्‍य सरकार की ओर से कराए गए कई अध्ययन और कुछ वैज्ञानिक रिपोर्ट्स में इस बारे में सचेत भी किया गया, लेकिन इस खतरनाक आहट के संकेत को न ही समझा और न ही कोई कदम उठाया गया। जलप्रलय के नतीजे हमारे सामने हैं।

प्राकृतिक संसाधनों के लगातार दोहन की वजह से जलवायु में आ रहा परिवर्तन इस तरह की आपदाओं को बल प्रदान करता है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीते 110 साल में देश में प्राकृतिक आपदाओं का सालाना औसत करीब 140 गुना बढ़ा है। जीआईएस लैब और जम्‍मू-कश्‍मीर स्‍टेट रिमोट सेन्‍स‍िंग सेंटर के अध्ययन के मुताबिक, श्रीनगर में मौजूद 50 प्रतिशत से ज्‍यादा झील और अन्य जलाशय बीती शताब्‍दी में लुप्त हो गए। ये जलाशय बाढ़ का बहुत सारा पानी अपने अंदर समा सकते थे। ज्यादा नहीं, एक शताब्‍दी पहले श्रीनगर शहर का बहुत सारा इलाका जलाशयों, झीलों से घिरा हुआ था। वैज्ञानिकों ने 1911 से 2004 के बीच झीलों के सिकुड़ने की सैटेलाइट स्‍टडी की। इसके मुताबिक, श्रीनगर में जलाशयों के सूखने की वजह से शहर की आबोहवा पर बुरा असर पड़ा है।

रिपोर्ट के मुताबिक, बाढ़ के दौरान जलाशयों में रेत खनन के साथ बढ़ते अतिक्रमण, मिट्टी पाटे जाने, पौधरोपण, निर्माण कार्य की वजह से श्रीनगर में मौजूद जलाशय लगातार खत्‍म होते गए। इनके खत्‍म होने से जो सबसे बड़ी समस्‍या शहर के सामने आई, वह ड्रेनेज या जल निकासी की समस्या पैदा हुई। वैज्ञानिकों का कहना है कि हाल के सालों में घाटी में दो-तीन दिन की बारिश से झेलम नदी में बाढ़ का खतरा मंडराने लगता है, लेकिन दो-तीन दशक पहले ऐसा नहीं होता था।

पहले नदी के करीब के इलाकों में वही रहते थे, जिनकी आजीविका नदी से जुड़ी होती थी। ऐसे में बाढ़ आदि की चेतावनी मिलने पर उन्हें तुरंत इलाका छोड़ने के लिए कहा जाता था। रिहाइशी इलाके ऊंचे जगह पर बनाए जाते थे। पहले जो जमीनें प्राकृतिक ढंग से नदी का पानी सोखते थे, उन पर अब इंसानी कॉलोनियां बस गई हैं। इसके अलावा, पानी निकासी की जगहों पर पक्की सड़कें बन गई हैं। इसके अलावा इलाके में लगे हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट भी इस आपदा के लिए जिम्मेदार हैं। इन परियोजना की वजह से नदियों पर बांध बनाने, वनों की कटाई, नदियों के दिशा मोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ी। इन्हीं प्रक्रियाओं की वजह से भूस्खलन और अचानक बाढ़ आने की घटनाओं में वृद्धि हुई है।

जल प्रलय के पीछे एक प्रमुख वजह यह भी माना जा रहा है कि मानसूनी बारिश के स्तर का अंदाजा लगाना मौसम वैज्ञानिकों के लिए लगातार मुश्किल होता जा रहा है। उदाहरण के तौर पर, श्रीनगर में 5 सितंबर को होने वाली औसत बारिश का स्तर 0.4 मिमी होता है, लेकिन इस साल यह 49 मिमी रही जो औसत से करीब 122 गुना ज्यादा है। अब इतने बड़े अंतर का आंकलन कोई कैसे कर सकता है। कहने को तो कह दिया जाता है कि यह सब जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा है, लेकिन इस जलवायु परिवर्तन के पीछे जो मानवीय अतिक्रमण की कहानी लगातार फल-फूल रही है उसको दफन करना ही होगा।

वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वर्तमान हालात के मद्देनजर तत्‍काल प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो बहुत देरी हो जाएगी। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की मानें तो सरकार बस यह कहकर खानापूर्ति कर रही है कि इस तरह की घटनाएं असंतुलित मानसून और पश्चिमी विक्षोभ का नतीजा हैं, लेकिन यह मानकर सरकार हालात की गंभीरता को नजरअंदाज कर रही है। सरकार प्राकृतिक त्रासदि‍यों के पीछे की सही वजह जानने की कोशिश नहीं कर रही है। पर्यावरण मंत्रालय पारिस्थितिकी तंत्र और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की दिशा में पर्याप्‍त ध्‍यान नहीं दे रही है।

यहां हमें कुछ और चीजें समझनी जरूरी है। हम भारतीय कितनी निर्दयता से पीड़ा से छटपटाती अपनी धरती पर घाव पर घाव बना रहे हैं। स्थान-स्थान पर उसे काट रहे हैं। वनों का विनाश कर उसे नंगा कर रहे हैं। नदी-नालों के अविरल प्रवाह में बाधा पर बाधा डाले जा रहे हैं। क्लाउड बर्स्ट के कारण बृहद हिमालय की तलहटी की पट्टी के हजारों गांव बार-बार प्राकृतिक विदाओं की त्रासदी भोग रहे हैं, झेल रहे हैं। यही वह पट्टी है, जो जब-जब भूकंपों से डोलने लगती है, कांपने लगती है तो पहाड़ टूटते हैं, ढालें सरकती हैं और धरती धंसती है।

मौसम विज्ञानी सालों साल से कहते आ रहे हैं कि जलवायु परिवर्तनों के कारण अब देश में मानसूनी वर्षा असमान रूप से होगी और अतिवृष्टि या अनावृष्टि का दुष्चक्र चला करेगा। हिमालय के उत्तराखंडी अंचल हों या हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी वादियों हो या फिर जम्मू कश्मीर में जल प्रलय का जो नजारा हमने हाल में देखा, इस खतरे का अनुमान पहले से ही जताया जा रहा था। लंबे-लंबे समय तक सूखा पडने के बाद जब वर्षा होती है तो अनवरत मूसलाधार पानी बरसता है। और तब उफनती-उमड़ती नदियां विनाशकारी बन जाती हैं।

वर्ष 2009 में जिला पिथौरागढ़ के मुन्स्यारी-तेजम क्षेत्र में और 2010 तथा 2012 में गढ़वाल की भागीरथी और अलकनंदा घाटियों में प्रकृति के अकल्पनीय प्रकोप को कभी भुलाया नहीं जा सकता। जम्मू कश्मीर में जिस तरह का जल प्रलय हमने सितंबर महीने के शुरू में देखा, सदियों तक लोग इसे जेहन में रखेंगे। लेकिन जेहन में रखने से क्या? मूसलाधार वर्षा के आघात और उमड़ती-उन्मादिनी सरिताओं एवम् नदियों के कटाव के कारण पर्वतीय ढालें टूट-टूट कर फिसल रही हैं, धंस रही हैं। भूस्खलनों की विभीषिका थमती ही नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, भारतीय हिमालय के अलग-अलग क्षेत्रों में साल 2008 तक करीब 2,10, 000 कि.मी. लंबी सड़कों का निर्माण किया जा चुका है। सड़कों का जाल बिछाने का एक परिणाम यह हुआ है कि हिमालय की धरती के प्रभावित क्षेत्रों में कटाव-घिसाव सामान्य से डेढ़-दो हजार गुना बढ़ गया है।

यथार्थ की परवाह किए बिना हम नदियों के प्राकृतिक मार्गों में अवरोध खड़े कर रहे हैं, उनके प्रवाह में बाधा डाल रहे हैं, घर बना रहे हैं, ऊंचे-ऊंचे होटल खड़े कर रहे हैं, दुकानों की कतारें लगा रहे हैं। जब उफनती-उमड़ती नदी अपने पूरे जोश में होती है, उफान में होती है तब अपने मार्ग की बाधाओं को हटाती-मिटाती बहती है। यही हुआ है जम्मू कश्मीर में झेलम और चिनाब नदी में जल प्रलय, उत्तराखंड के मंदाकिनी, अलकनंदा, पिंडर, सरयू, रामगंगा, धौली (दारमा) और काली की घाटियों में। उनके प्राकृतिक मार्गों में बने गांव, मकान, होटल, पुल सभी बह गए। क्या गांव, क्या शहर सभी उजड़ गए। आक्रांत, असहाय, बेसहारा लोगों का सर्वस्व नष्ट हो गया। निश्चित रूप से हमें इन सब मानवजनित विकृतियों से पार पाना होगा। समय रहते अगर नहीं सुधरे तो वो दिन जरूर आएगा जब पूरी मानव जाति के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़ा हो जाएगा।
   By Pradeep

Wednesday, 17 September 2014

Tavij

:::::::::::::एक ताबीज आपकी किस्मत पलट सकता है::::::::::::::
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ताबीज आदि के निर्माण में एक वृहद् उर्जा विज्ञानं काम करता है ,जिसे प्रकृति का विज्ञान कहा जाता है | एक विशिष्ट प्रक्रिया ,विशिष्ट पद्धति और विशिष्ट वस्तुओं के विश्सिष्ट समय में संयोग से विशिष्ट व्यक्ति द्वारा निर्मित ताबीज और यन्त्र में एक विशिष्ट शक्ति का समावेश हो जाता है ,जो किसी भी सामान्य व्यक्ति को चमत्कारिक रूप से प्रभावित करती है जिससे उसके कर्म-स्वभाव-सोच-व्यवहार-प्रारब्ध सब कुछ प्रभावित होने लगता है |
-ताबीज में प्राणी के शरीर और प्रकृति की उर्जा संरचना ही कार्य करती है ,,इनका मुख्य आधार मानसिक शक्ति का केंद्रीकरण और भावना के साथ विशिष्ट वस्तुओं-पदार्थों-समय का तालमेल होता है| ,,,,प्रकृति में उपस्थित वनस्पतियों और जन्तुओ में एक उर्जा परिपथ कार्य करता है ,मृत्यु के बाद भी इनमे तरंगे कार्य करती है और निकलती रहती हैं ,,,,इनमे विभिन्न तरंगे स्वीकार की जाती है और निष्कासित की जाती है |जब किसी वस्तु या पदार्थ पर मानसिक शक्ति और भावना को केंद्रीकृत करके विशिष्ट क्रिया की जाती है तो उस पदार्थ से तरंगों का उत्सर्जन होने लगता है ,,,,जिस भावना से उनका प्रयोग जिसके लिए किया जाता है ,वह इच्छित स्थान पर वैसा कार्य करने लगता है ,|उदहारण के लिए ,,,किसी व्यक्ति को व्यापार वृद्धि के लिए कुछ बनाना है ,तो इसके लिए इससे सम्बंधित वस्तुएं अथवा यन्त्र विशिष्ट समय में विशिष्ट तरीके से निकालकार अथवा निर्मित करके जब कोई उच्च स्तर का साधक अपने मानसिक शक्ति के द्वारा उच्च शक्तियों के आह्वान के साथ जब प्राण प्रतिष्ठा और अभिमन्त्रण करता है तो वस्तुगत उर्जा -यंत्रागत उर्जा के साथ साधक की मानसिक और आध्यात्मिक ऊर्जा का ऐसा अद्भुत संयोग बनता है की निर्मित ताबीज से तीब्र तरंगें निकालने लगती हैं ,इन्हें जब सम्बंधित धारक को धारण कराया जाता है तो यह ताबीज उसके व्यापारिक चक्र [लक्ष्मी या संमृद्धि के लिए उत्तरदाई ] को स्पंदित करने लगता है ,दैवीय प्रकृति की शक्ति आकर्षित हो धारक से जुड़ने लगती है और उसकी सहायता करने लगती है ,अनावश्यक विघ्न बाधाएं हटाने लगती है ,साथ ही मन और मष्तिष्क भी प्रभावित होने लगता है ,जिससे उसके निर्णय लेने की क्षमता ,शारीरिक कार्यप्रणाली ,दैनिक क्रिया कलाप बदल जाते है ,उसके प्रभा मंडल पर एक विशेष प्रभाव पड़ता है ,जिससे उसकी आकर्षण शक्ति बढ़ जाती है ,बात-चीत का ढंग बदल जाता है ,सोचने की दिशा परिवर्तित हो जाती है ,कर्म बदलते हैं ,,प्रकृति और वातावरण में एक सकारात्मक बदलाव आता है और व्यक्ति को लाभ होने लगता है,, |यह एक उदाहरण है ,ऐसा ही हर प्रकार के व्यक्ति के लिए हो सकता है उसकी जरुरत और कार्य के अनुसार ,|यहाँ यह अवश्य ध्यान देने योग्य होता है की यह सब तभी संभव होता है जब वास्तव में साधक उच्च स्तर का हो ,उसके द्वारा निर्मित ताबीज खुद उसके हाथ द्वारा निर्मित हो ,सही समय और सही वस्तुओं से समस्त निर्माण हो ,|ऐसा न होने पर अपेक्षित लाभ नहीं हो पाता| ताबीज और यन्त्र तो बाजार में भी मिलते है और आजकल तो इनकी फैक्टरियां सी लगी हैं ,जो प्रचार के बल पर बेचीं जा रही हैं ,कितना लाभ किसको होता है यह तो धारक ही जानता है |
ताबीज बनाने वाले साधक की शक्ति बहुत मायने इसलिए रखती है की जब वह अपने ईष्ट में सचमुच डूबता है तो वह अपने ईष्ट के अनुसार भाव को प्राप्त होता है ,,भाव गहन है तो मानसिक शक्ति एकाग्र होती है ,जिससे वह शक्तिशाली होती है ,यह शक्तिशाली हुई तो उसके उर्जा परिपथ का आंतरिक तंत्र शक्तिशाली होता है और शक्तिशाली तरंगे उत्सर्जित करता है |ऐसा व्यक्ति यदि किसी विशेष समय,ऋतू-मॉस में विशेष तरीके से ,विशेष पदार्थो को लेकर अपनी मानसिक शक्ति और मन्त्र से उसे सिद्ध करता है तो वह ताबीज धारक व्यक्ति को अच्छे-बुरे भाव की तरंगों से लिप्त कर देता है |यह समस्त क्रिया शारीर के उर्जा चक्र को प्रभावित करती है और तदनुसार व्यक्ति को उनका प्रभाव दिखाई देता है| यह ताबीजें इतनी शक्तिशाली होती हैं की व्यक्ति का प्रारब्ध तक प्रभावित होने लगता है |अचानक आश्चर्यजनक परिवर्तन होने लगते हैं |.......

Yoni Tantra

The Yoni Tantra is a religious text from Bengal (11th century or earlier) mainly concerned with describing the Yoni Puja, or "Mass of the Vulva"; one of the secret and esoteric Tantric rituals dedicated to creating - and consuming - the sacred fluid which is called yonitattva.

According to this text, sexual union (maithuna) is an indispensable part of Tantric ritual and may be performed by and with women between the age of twelve and sixty years, married or not, except for a girl not yet menstruating. The text specifies nine types of women (navakanya) who may perform sexual rituals, yet explicitly forbids an incestuous mother/son constellation.

In general, however, this Tantra does not impose many restrictions on the practitioner (sadhaka) who is dedicated to the Yoni Puja. It advocates use of the five makara and leaves the choice of partner, place and time very much up to the practitioner. Nevertheless, the male sadhaka is explicitly admonished "never to ridicule a yoni" and to treat all women well and never to be offensive toward them.

In the accompanying two quotes, it becomes clear just why the text bears its name, showing that the yoni is truly the center of worship. The text also outlines a specific topography of the yoni with ten subdivisions, most of which are associated with one of the Mahavidyas, ten important Indian goddesses.

Skt. Goddess
hairpit yonimula-devi
field yoni-naganandini
edge yonicakra-kali Kali
arch yonicakra-tara Tara
girdle yonikuntala-chinnamastaka Chinnamasta
nodule yonisamipato-vagala Bhagala
cleft yonisamipato-matangi Matangi
wheel yonigarta-mahalakshmi Lakshmi
throne yonigarta-sodasi Sodasi
root yonigarta-bhuvanesvari Bhuvaneshvari

Apsara

::::::::::::::::::अप्सरा ::::::::::::::::::::
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भारतीय संस्कृति में अप्सरा एक जाना -पहचाना नाम है ,यह नाम वैदिक युग से ही विभिन्न कारणों से जाना जाता है ,,तंत्र जगत में कई धर्मो -सम्प्रदायों में अप्सरा की साधना की जाती है विभिन्न नामों से |अप्सरा देवलोक में रहने वाली अनुपम, अति सुंदर, अनेक कलाओं में दक्ष, तेजस्वी और अलौकिक दिव्य स्त्री है। वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है कि देवी, परी, अप्सरा, यक्षिणी, इन्द्राणी और पिशाचिनी आदि कई प्रकार की स्त्रियां हुआ करती थीं। उनमें अप्सराओं को सबसे सुंदर और जादुई शक्ति से संपन्न माना जाता है। अप्सराओं को इस्लाम में हूर अथवा परि कहा गया है। भारतीय पुराणों में यक्षों, गंधर्वों और अप्सराओं का जिक्र आता रहा है। यक्ष, गंधर्व और अप्सराएं देवताओं की इतर श्रेणी में माने गए हैं। कहते हैं कि इन्द्र ने 108 ऋचाओं की रचना कर अप्सराओं को प्रकट किया। मंदिरों के कोने-कोने में आकर्षक मुद्रा में अंकित अप्सराओं की ‍मूर्तियां सुंदर देहयष्टि और भाव-भंगिमाओं से ध्यान खींच लेती हैं।
वेद और पुराणों की गाथाओं में उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा, कुंडा आदि नाम की अप्सराओं का जिक्र होता रहा है। सभी अप्सराओं की विचित्र कहानियां हैं। माना जाता है कि ये अप्सराएं गंधर्व लोक में रहती थीं। ये देवलोक में नृत्य और संगीत के माध्यम से देवताओं का मनोरंजन करती थीं।
पुराणों के अनुसार देवताओं के राजा इन्द्र ने सिंहासन की रक्षा के लिए अनेक बार संत-तपस्वियों के कठोर तप को भंग करने के लिए अप्सराओं का इस्तेमाल किया है। वेद-पुराण में कई स्थानों में इन अप्सराओं के नाम आए हैं, जहां इन्होंने घोर तपस्या में लीन ऋषियों के तप को भंग किया।
अपनी व्युत्पति (अप्सु सरत्ति गच्छतीति अप्सरा:) के अनुसार ही अप्सरा जल में रहने वाली मानी जाती है। अथर्ववेद तथा यजुर्वेद के अनुसार ये पानी में रहती हैं। अथर्ववेद के अनुसार ये अश्वत्थ तथा न्यग्रोध वृक्षों पर रहती हैं, जहां ये झूले में झूला करती हैं और इनके मधुर वाद्यों (कर्करी) की मीठी ध्वनि सुनी जाती है। ये नाच-गान तथा खेलकूद में निरत होकर अपना मनोविनोद करती हैं। अप्सराओं की कोई उम्र निर्धारित नहीं है। ये सभी अजर-अमर हैं। शास्त्रों के अनुसार देवराज इन्द्र के स्वर्ग में 11 अप्सराएं प्रमुख सेविका थीं। ये 11 अप्सराएं हैं-कृतस्थली, पुंजिकस्थला, मेनका, रम्भा, प्रम्लोचा, अनुम्लोचा, घृताची, वर्चा, उर्वशी, पूर्वचित्ति और तिलोत्तमा। इन सभी अप्सराओं की प्रधान अप्सरा रम्भा थी। अलग-अलग मान्यताओं में अप्सराओं की संख्या 108 से लेकर 1008 तक बताई गई है।
अप्सराएँ देवलोक से इतर योनी की हैं अर्थात देवता या देवी नहीं है ,मनुष्य यह हैं नहीं |इस प्रकार यह बीच की योनी है जो देवताओं की इच्छा से और मनुष्यों की आराधना से कार्य सम्पादन करती हैं |इस तात्विक दृष्टि से देखें तो इनका स्थान बीच का आता है ,,अर्थात पृथ्वी से ऊपर और देलोक से नीचे |पृथ्वी की सतह पर नैसर्गिक नकारात्मक शक्तियां रहती हैं यथा पिशाच-पिशाचिनी आदि किन्तु अप्सरा नकारात्मक शक्तियां नहीं हैं इसलिए इनका स्थान सतह से कुछ ऊपर होता है और मूलतः इन्हें ऋणात्मक शक्तियों की श्रेणी में रखा जा सकता है |अप्सराएँ सहायिका की भूमिका निभाती है और भौतिक सुख-समृद्धि दे सकती है ,चुकी इनमे विलक्षण जादुई या अलुकिक शक्तियां होती हैं अतः साधकों या मनुष्यों के लिए बहुत प्रकार से लाभदायक होती हैं |इसी कारण बहुत से साधक इनकी साधना करके इन्हें अपने वशीभूत कर लेते हैं जिससे उन्हें अपनी उच्च साधनाएं निर्विघ्न से संपन्न करने में सहायत मिले |यद्यपि इनकी साधना बेहद कठिन होती है किन्तु देव-देवी जितनी नहीं ,,चुकी ऋणात्मक शक्तियां हैं अतः सामान्य रूप से तामसिक प्रवृत्ति की और शीघ्र आकृष्ट होती हैं और नियंत्रित हो सकती हैं

::[Lingashtakam]

लिङ्गाष्टकम्
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ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिङ्गम् निर्मलभासितशोभितलिङ्गम् ।
जन्मजदुःखविनाशकलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥१॥
Brahma-Muraari-Sura-Aarcita-Linggam Nirmala-Bhaasita-Shobhita-Linggam |
Janmaja-Duhkha-Vinaashaka-Linggam Tat Prannamaami Sadaashiva-Linggam ||1||

देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गम् कामदहम् करुणाकरलिङ्गम् ।
रावणदर्पविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥२॥
Deva-Muni-Pravara-Aarcita-Linggam Kaama-Daham Karunnaa-Kara-Linggam |
Raavanna-Darpa-Vinaashana-Linggam Tat Prannamaami Sadaashiva-Linggam ||2||

सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गम् बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥३॥
Sarva-Sugandhi-Sulepita-Linggam Buddhi-Vivardhana-Kaaranna-Linggam |
Siddha-Sura-Asura-Vandita-Linggam Tat Prannamaami Sadaashiva-Linggam ||3||

कनकमहामणिभूषितलिङ्गम् फणिपतिवेष्टितशोभितलिङ्गम् ।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥४॥
Kanaka-Mahaamanni-Bhuussita-Linggam Phanni-Pati-Vessttita-Shobhita-Linggam |
Dakssa-Su-Yajnya-Vinaashana-Linggam Tat Prannamaami Sadaashiva-Linggam ||4||

कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गम् पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम् ।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥५॥
Kungkuma-Candana-Lepita-Linggam Pangkaja-Haara-Su-Shobhita-Linggam |
San.cita-Paapa-Vinaashana-Linggam Tat Prannamaami Sadaashiva-Linggam ||5||

देवगणार्चितसेवितलिङ्गम् भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम् ।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥६॥
Deva-Ganna-Aarcita-Sevita-Linggam Bhaavair-Bhaktibhir-Eva Ca Linggam |
Dinakara-Kotti-Prabhaakara-Linggam Tat Prannamaami Sadaashiva-Linggam ||6||

अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गम् सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम् ।
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥७॥
Asstta-Dalo-Parivessttita-Linggam Sarva-Samudbhava-Kaaranna-Linggam |
Asstta-Daridra-Vinaashita-Linggam Tat Prannamaami Sadaashiva-Linggam ||7||

सुरगुरुसुरवरपूजितलिङ्गम् सुरवनपुष्पसदार्चितलिङ्गम् ।
परात्परं परमात्मकलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥८॥
Suraguru-Suravara-Puujita-Linggam Suravana-Pusspa-Sada-Aarcita-Linggam |
Paraatparam Paramaatmaka-Linggam Tat Prannamaami Sadaashiva-Linggam ||8||

लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥
Linggaassttakam-Idam Punnyam Yah Patthet Shiva-Sannidhau |
Shivalokam-Avaapnoti Shivena Saha Modate |

Kya hai sivling

::::::::::::::::::::::: क्या है शिवलिंग::::::::::::::::::::::::
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समस्त संसार में शिवलिंग पाए जाते हैं ,विभिन्न धर्मों तक में इनकी किसी न किसी रूप में प्रतीकाकृति मिलती हैं |हिन्दू धर्म में यह परम पवित्र शिव के प्रतीक माने जाते हैं और इनकी पूजा की जाती है |यह शिवलिंग है क्या ,कभी इस पर सामान्यतया विचार सामान्य लोग नहीं करते जा इसके बारे में बहुत नहीं जानते |इसलिए जो जैसी परिभाषा इसकी गढ़ कर सुना देता है सामान्य रूप से मान लिया जाता है और कल्पना कर ली जाती है |कुछ महाबुद्धिमान प्राणियों ने परम पवित्र शिवलिंग को जननांग समझ कर पता नही क्या-क्या और कपोल कल्पित अवधारणाएं फैला रखी हैं परन्तु...वास्तव में. शिवलिंग. वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का प्रतिनिधित्व करता है |इसका अक्ष /धुरी (axis) ही लिंग है।
दरअसल.इसमें ये गलतफहमी.. भाषा के रूपांतरण और, मलेच्छों द्वारा हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट कर दिए जाने तथा, अंग्रेजों द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्न हुआ हो सकता है. |जैसा कि.... हम सभी जानते है कि. एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में. अलग-अलग अर्थ निकलते हैं....! उदाहरण के लिए.- यदि हम हिंदी के एक शब्द ""सूत्र''' को ही ले लें तो सूत्र मतलब. डोरी/धागा, .गणितीय सूत्र ,.कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है जैसे कि. नारदीय सूत्र ,.ब्रह्म सूत्र इत्यादि | उसी प्रकार ""अर्थ"" शब्द का भावार्थ: सम्पति भी हो सकता है और मतलब (मीनिंग) भी |
ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है।
ध्यान देने योग्य बात है कि""लिंग"" एक संस्कृत का शब्द है जिसके निम्न अर्थ है :
@ त आकाशे न विधन्ते -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० ५
अर्थात..... रूप, रस, गंध और स्पर्श ........ये लक्षण आकाश में नही है ..... किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है ।
@ निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकशस्य लिंगम् -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० २ ०
अर्थात..... जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है ....वह आकाश का लिंग है ....... अर्थात ये आकाश के गुण है ।
@ अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० ६
अर्थात..... जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते है, और ये .... काल के लिंग है ।
@ इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० १ ०
अर्थात....... जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व् नीचे का व्यवहार होता है ....उसी को दिशा कहते है....... मतलब कि....ये सभी दिशा के लिंग है ।
@ इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति -न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०
अर्थात..... जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है...... और, ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण है ।
इसीलिए......... शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने के कारन.......... इसे लिंग कहा गया है...।
स्कन्दपुराण में स्पष्ट कहा है कि....... आकाश स्वयं लिंग है...... एवं , धरती उसका पीठ या आधार है .....और , ब्रह्माण्ड का हर चीज ....... अनन्त शून्य से पैदा होकर..... अंततः.... उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है .|यही कारण है कि इसे कई अन्य नामो से भी संबोधित किया गया है जैसे कि प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग (cosmic pillar/lingam) इत्यादि |
यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि. इस ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है : ऊर्जा और प्रदार्थ | इसमें से हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है जबकि आत्मा एक ऊर्जा है |ठीक इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते हैं | क्योंकि ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है |इसीलिए शास्त्रों में शक्ति की विवेचना में कहा जाता है की जब शक्ति [काली] शिव से निकल जाती है तो शिव भी शव हो जाते हैं ,अर्थात शिव तभी ताल शिव हैं जब तक उनके साथ शक्ति हैं |वैसे ही पदार्थ में तभी तक जीवन है जबतक उसमे आत्मा है |
अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की दृष्टि से बोलने की जगह ... शुद्ध वैज्ञानिक भाषा में बोला जाए तो. हम कह सकते हैं कि शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि हमारे ब्रह्मांड की आकृति है.,उसकी ऊर्जा संरचना की प्रतिकृति है ,और अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की भाषा में बोला जाए तो शिवलिंग ,भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-अनादि एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक है. | अर्थात शिवलिंग हमें बताता है