Sunday, 1 November 2015

पुरस्कार लौटने वाले की सच

पुरस्कार तो लौटेंगे ही
अब गीता पढ़ने वाला पीएम जो मिला है।
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पुरस्कार तो लौटेंगे ही
पाकिस्तान में मोदी हाय हाय जो मचा हुआ है।
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पुरस्कार तो लौटेंगे ही
क्योंकि
अब राष्ट्रपति भवन में रोज़ा इफ़्तार के साथ नवरात्री का कन्या पूजन भी जो हो रहा है।

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पुरस्कार तो लौटेंगे ही
जो इस देश का पीएम जाकर अरब में मंदिर बनवा रहा है।
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पुरस्कार तो लौटेंगे ही
जो इस देश का पीएम विदेशों में भी भगवा धारण कर रहा है।
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पुरस्कार तो लौटेंगे ही
जो आज मोदी की वजह से विश्व योगा दिवस मना रहा है।
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पुरस्कार तो लौटेंगे ही
जो अब फिर से दूरदर्शन के लोगों में "सत्यम शिवम् सुन्दरम्" अंकित हो गया है।
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पुरस्कार तो लौटेंगे ही
जो आज पूरे देश में गौहत्या रोकने की बात जो हो रही है।
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इंतज़ार करिये।
अभी बहुत पुरस्कार लौटने हैं।
देश जाग जो रहा हैं

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जय हिंद
⛳जय भारत ⛳

ॐॐ
आओ मित्रो जरा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने के नाम पर हो रही राजनीती से अवगत हुआ जाए।

पहले कुछ तथ्य ।

1) आज तक 1004 लेखको को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है ।

2) जिसमे से 25 लेखको ने ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से पुरस्कार लौटाने की बात की है ।जबकि कुछ न्यूज़ चैनल इसे दिखा ऐसे रहे है।जैसे कितनी बड़ी त्रासदी आ गयी हो ।

3) 25 लेखको में से भी केवल 8 ने ही पुरस्कार लौटाने के लिए अकादमी को चिठ्ठी लिखी है ।बाकि ने तो सिर्फ चैनलों के माध्यम से बात ही कही है लौटाने की ।जैसे धमका रहें हो।

4) 8 में से भी केवल 3 ने ही 1 लाख रुपये का चेक लौटाया है जो पुरस्कार के साथ मिलता है ।

अब जरा ये जानने का प्रयास किया जाये के इस पुरस्कार को लौटाने का कारण क्या है ।
लेखको के अनुसार जबसे केंद्र में ये सरकार बनी है ।तब से देश में सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा है । क्या ये सच है । देखते हैं ।

साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले लेखक तथा उनका सत्य ।

1) नयनतारा सहगल

   जवाहर लाल नेहरू की भांजी
पुरस्कार मिला 1986 में
सवाल - क्या पुरस्कार पाने के 29 वर्षों में भारत में राम राज्य था ।
1984 के दंगों में 2800 सिख मरे और केवल 2 साल बाद ही पुरस्कार मिला पर लौटाने के बजाय चुपचाप रख लिया ।

2) उदय प्रकाश
वर्ष 2010 में साहित्य पुरस्कार मिला

सवाल - वर्ष 2013 में डाभोलकर की हत्या के बाद पुरस्कार क्यों नहीं लौटाया ।

3) अशोक वाजपेयी
वर्ष 1994 में पुरस्कार मिला ।

सवाल - क्या वर्ष 1994 से वर्ष 2015 तक देश में राम राज्य था ।

4) कृष्णा सोबती
वर्ष 1980 में पुरस्कार मिला ।

सवाल - वर्ष 1984 के सिख दंगो के वक़्त भावनाएँ आहत क्यों नहीं हुईं ।

5) राजेश जोशी
वर्ष 2002 में पुरस्कार मिला

सवाल - क्या इतने वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाये नहीं हुईं ।

आइये अब कुछ और तथ्य जानें ।

वर्ष 2009 से लेकर वर्ष 2015 तक सांप्रदायिक हिंसा की 4346 घटनायें हुईं।

मतलब वर्ष 2009 से लेकर प्रति दिन औसतन सांप्रदायिक हिंसा की 2 घटनाये हुईं।

वर्ष 2013 के मुज्जफरनगर दंगो में 63 लोगो की जान गयी।

वर्ष 2012 के असम दंगो में 77 लोग मारे गए ।

वर्ष 1984 के सिख दंगो में 2800 लोग मारे गए थे ।

वर्ष 1990 से कश्मीरी पंडितों की 95 प्रतिशत आबादी को कश्मीर छोड़ना पड़ा था ।करीब 4 लाख कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से निकाल दिया गया और उन्हें देश के अन्य शहरो में रहने को मजबूर होना पड़ा ।

अगस्त 2007 हैदराबाद में लेखिका तस्लीमा नसरीन के साथ बदसलूकी की गयी । और उसके खिलाफ फतवा जारी किया गया । और कोलकाता आने से भी रोका गया ।

वर्ष 2012 सलमान रुश्दी को जयपुर आने नहीं दिया गया ।रुश्दी को वीडियो लिंक के जरिये भी बोलने नहीं दिया गया ।

चलिये अब महत्वपूर्ण प्रश्न

क्या ये लेखक दंगो में अंतर करते हैं ।आखिर इन्हें अचानक दंगो से इतनी परेशानी कैसे हो गयी ।या इसकी वजह कुछ और है।

दाभोलकर की जब हत्या हुई तब केंद्र और राज्य दोनों में कांग्रेस की सरकार थी,
तब कोई साहित्यकार पुरस्कार लौटाने नही आया ।।
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कलबुर्गी की भी हत्या कांग्रेस शाषित राज्य में हुई है ।।

. नयनतारा को साहित्य का पुरस्कार 1986 में मिला,
उससे दो साल पहले सिख दंगा हुआ था पर उन्होंने पुरस्कार लिया ।।

.इसके बाद भागलपुर दंगे हुए ,

कश्मीर में पंडितो का कत्लेआम हुआ ,

93 दंगे और बम विस्फोट हुए ।।

2002 में साबरमती एक्सप्रेस में 65 आदमी औरते बच्चों को जिन्दा जला दिया गया ।।
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उसके बाद से देश भर में कई कत्ले आम और आतंकी घटनाए जैसे...
मुम्बई लोकल में बम विस्फोट ,

संकट मोचन मन्दिर पर हमला ,

अक्षरधाम हमला ,

जम्मू के रघुनाथ मन्दिर पर हमला ,

अमरनाथ मे हमला

मुम्बई में आतंकी हमला हो चूका है

तब किसी ने पुरस्कार नही लौटाया...
क्या तब माहौल खराब नही हुआ था ??
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असली बात ये है की ये सब साहित्यकार के भेष में छुपे कांग्रेस के चाटुकार है जिनको कांग्रेस  ने इसीदिन के लिए पाल कर रखे हुए थे ।। आज ये लोग बस अपने नमक का फर्ज अदा कर रहे है ।।.

Sunday, 13 September 2015

शरीर के लिए माँसाहार उत्तम है या शाकाहार?

शरीर के लिए माँसाहार उत्तम है या शाकाहार? भारतीय परिवेश की ये अन्तहीन बहस है. बहुतों की नज़र में ये फालतू की बहस है. लेकिन कुछ दिनों से छिड़ी भी तो हुई है. हाईकोर्ट तक इसमें कूद चुका है. कोई नहीं जानता कि भारतीय संस्कृति में शाकाहार और माँसाहार को पहली बार कब परिभाषित किया गया? सदियों से पशु-वध, संहार-शिकार और बलि को लेकर सामाजिक चेतना को जगाने की कोशिश होती रही है. लेकिन ज़रा सोचिए कि हमारे पुरखों की दृष्टि भी कितनी संकुचित रही होगी. क्योंकि सारी दुनिया को पहली बार भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस ने बताया था कि वनस्पतियों में भी वैसा ही जीवन और संवेदनाएँ होती हैं, जैसी जन्तु जगत में हैं. बोस ने 10 मई 1901 को वैज्ञानिकों से खचाखच भरे लन्दन स्थित रायल सोसाइटी के सेंट्रल हॉल में ये सिद्ध किया था कि पौधों में भी जीवन के वही लक्षण होते हैं जैसे जन्तुओं में हैं.

निकोलस कॉपरनिकस

 इससे पहले वेदान्त संस्कृति ये बता चुकी थी कि ब्रह्मांड की रचना जड़ (Non living) और चेतन (Living) से हुई है. बाद में वैज्ञानिकों ने इसकी आधुनिक परिभाषा तय की. जो साँस नहीं लेते और जिनमें वंश-वृद्धि की प्रक्रिया नहीं है वो जड़ हैं. जैसे पत्थर, मिट्टी, धातु वगैरह. जबकि पूरा प्राणिजगत जन्म-मृत्यु के बाहुपाश में है. इसका अध्ययन जीव विज्ञान (Biology) कहलाया. जन्तु विज्ञान (Zoology) और वनस्पति विज्ञान (Botany) इसकी शीर्ष शाखाएँ हैं. लिहाज़ा, माँसाहार हो या शाकाहार, मनुष्य को अपना पेट भरना है तो उसे जीव ‘हत्या’ तो करनी ही होगी. क्या सब्ज़ियों, फलों और दूध-घी में जीवन नहीं है? क्या जीवन सिर्फ़ माँस-मछली में ही है? क्या जीव-हत्या का पाप सिर्फ़ मुर्गा, बकरा, भेड़, सुअर और भैंसा वग़ैरह खाने वालों को ही लगेगा? क्या सब्ज़ियाँ, फल और दूध के सेवन से ज़िन्दगी गुज़ारने वाले पुण्य बटोरते हैं? धार्मिक दृष्टि से देखें तो सभी धर्म और उपासना पद्धतियाँ बुनियादी तौर पर मनुष्य को प्रेम (Love), दया (Kindness), करूणा (Compassion), सहिष्णुता (Tolerance) और बन्धुत्व (Brotherhood) का सन्देश देती हैं. कालान्तर में अलग-अलग मतावलम्बियों (Followers) ने अपने-अपने सम्प्रदाय के लिए तरह-तरह के मिथक (Assumptions) गढ़ लिये. बदलते तौर में हरेक बात को धार्मिकता से जोड़ने का चलन आया. देखते-देखते सभी आचार-व्यवहार धार्मिक साँचे में ढाल दिये गये. इससे अन्धविश्वास का जन्म हुआ. जिसे सभी धर्मों के स्वार्थी तत्वों ने जमकर भुनाया. लेकिन जब वैज्ञानिक अविष्कारों ने पाखंडियों को आड़े हाथ लिया तो ‘धर्म’ की दुकान चला रहे लोग तिलमिला पड़े. ऐसा पूरी दुनिया में हुआ. हमेशा हुआ. आगे भी होता रहेगा. सन् 1514 में जब कॉपरनिकस (Nicolaus Copernicus) ने सिद्ध किया कि ब्रह्मांड का केन्द्र पृथ्वी नहीं है. सूर्य, पृथ्वी के चारों ओर नहीं घूमता बल्कि पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर घूमती है. इस बात से उस दौर के धर्माचार्य बौखला गये. उन्होंने पादरियों के परिवार से जुड़े कॉपरनिकस को विधर्मी बताकर सज़ाएँ दीं. इसीलिए दुनिया को उनके ज़्यादातर शोधों का पता उनकी मौत के बाद चला. कॉपरनिकस की दिखायी राह पर चलकर वैज्ञानिक ब्रुनो (Giordano Bruno) ने सन् 1600 में बताया कि ब्रह्मांड में सूर्य जैसे कई सौरमंडल हैं. सूर्य इकलौता नहीं है. इसी तरह दूरबीन के जनक गैलिलियो (Galileo Galilei) ने सन् 1610 में बताया कि बृहस्पति के चार चन्द्रमा हैं. लेकिन कैथोलिक धारणाओं को चुनौती देती ऐसी जानकारियों को वो 1633 तक छिपाये रहे. उनके शोधों की भनक पाकर उन्हें सज़ा मिली कि वो कॉपरनिकस की राह पर नहीं चलेंगे. लेकिन गैलिलियो चोरी-छिपे अपने शोध में लगे रहे. इसकी पोल खुली तो उन्हें क़रीब दस साल की नज़रबन्दी झेलनी पड़ी जो उनकी मौत से ही ख़त्म हुई. साफ़ है कि दुनिया के हरेक समाज का एक तबका कभी नहीं चाहता कि उसके मिथकों को कोई चुनौती दे. ऐसा पाँच सौ साल पहले भी था. आज भी है. हालाँकि, इस दौरान दुनिया कहाँ से कहाँ आ पहुँची! शाकाहार और माँसाहार का द्वन्द तो उससे भी पुराना है. जीव विज्ञान हमें बखूबी समझा चुका है कि प्रकृति ने प्राणिजगत के लिए ऐसी भोजन-शृंखला (Food Chain) बनायी है जिसमें कोई किसी का भोजन है तो कोई किसी और का. किसी को हरियाली चाहिए तो किसी को तरह-तरह के जीव-जन्तु. शिकारी जानवर भूखे मर जाएँगे लेकिन घास नहीं खा सकते. गाय चाहे जितनी भूखी हो ख़रगोश नहीं खा सकती. जो प्राणी दूसरों का भोजन हैं, क़ुदरत ने उनकी वंश-वृद्धि की रफ़्तार ऐसी रखी है, जिससे नस्ल भी बची रहे और भोजन-शृंखला भी क़ायम रहे. कल्पना कीजिए कि आम के एक पेड़ पर जितने फल लगते हैं अगर वो सारे उसकी सन्तान की तरह आम के पेड़ बनने लगे तो कितने आम के पेड़ हो जाएँगे? ऐसा होता तो धरती पर सिर्फ़ आम ही आम के पेड़ होते. ऐसे ही फूलों के परागण का विधान है. कीट-पतंगे न हो तो उनकी वंश-वृद्धि कैसे होगी? इन्सान गेहूँ इसलिए पैदा करता करता है कि उसे रोटी चाहिए. गाय-भैंस इसलिए पालता है कि उसे दूध चाहिए. इसी तरह से बकरी इसलिए पाली जाती है कि बकरे चाहिए. सूअर इसलिए पाला जाता है कि गोश्त चाहिए. मनुष्य ने न जाने कितने वर्षों के शोध के बाद ये तय किया होगा कि कौन-कौन से जानवर क्यों पालने हैं? किसकी क्या उपयोगिता होगी? गोश्त तो सभी में है. लेकिन पक्षियों में भी मुर्गे को ही क्यों नियमित भोजन के लिए चुना गया होगा? अंडा तो लाखों तरह के प्राणी देते हैं लेकिन सबको अंडों के लिए क्यों नहीं पाला जाता? दूध तो हरेक स्तनधारी में है, लेकिन दूध के लिए गाय-भैंस या ऊँट-याक वगैरह को ही क्यों पाला जाता है? ये सारी बातें तरह-तरह के समाजशास्त्रीय अध्ययन से सदियों में तय हुई होंगी. बैक्टीरिया-वायरस जैसे अतिसूक्ष्म जीवों का पता क्या हमारे पुरखों को था? साफ़ है कि जब तक वैज्ञानिक तथ्य हमारी आँखों पर पड़ी धुन्ध को साफ़ नहीं कर देते, तब तक हम दकियानूसी भँवर में ही फँसे रहेंगे. इसके लिए किसी इंसान या धर्म में कमी-बेसी ढूँढने से कुछ होगा. फ़र्क़ पड़ेगा तो सिर्फ़ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से. वर्ना ढकोसले की बीमारी अनुवांशिक (Hereditary) ढंग से एक से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती रहेगी. काफ़ी समय से भारतीय समाज में अलग-अलग ढंग का तुष्टिकरण (Appeasement) दिखायी देता है. तुष्टिकरण का प्रचलित चेहरा सिर्फ़ हज या कैलाश मानसरोवर यात्रा पर मिलने वाली घोषित या अघोषित सब्सिडी ही नहीं है. किसी ख़ास वर्ग को लुभाने के लिए किसी ख़ास दिन सरकारी छुट्टी का एलान कर देना या किसी को रिझाने के लिए किसी पर्व विशेष पर माँस-बिक्री पर रोक लगा देना या सड़कों को तरह-तरह के जुलूसों, शोभायात्राओं वग़ैरह के लिए हर तरह की छूट दे देना – ये सारा भी तुष्टिकरण ही है. कोई भी सियासी या धार्मिक संगठन इससे अछूता नहीं है. सब एक जैसे हैं. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि कभी किसी एक तरह के लोगों का ज़ोर चलता है तो कभी दूसरे का. भारत में धार्मिक आस्थाओं के नाम पर बलि देने की हिन्दू परम्परा कितनी पुरानी है, कोई नहीं जानता. यहाँ तो एक राजा इसलिए अमर हो गया कि उसने शरणागत कबूतर की रक्षा के लिए उसके शिकारी बाज़ को अपने शरीर का माँस देने का रास्ता चुना. क़िस्सों की भरमार है. आप जैसे क़िस्से ढूँढ़ना चाहेंगे, वैसे ही आपको मिलने लगेंगे. हमारे शहरों की किस प्रमुख सड़क पर आपको भटकता हुआ गौवंश नहीं दिखाई देगा? गाय को हमारी धार्मिक आस्थाओं से जोड़कर पूज्यनीय भले ही बना दिया गया हो, लेकिन उस जैसी बेक़द्री शायद ही भारतीय समाज में किसी और पशु की होती हो. सड़क पर दिखने वाली हरेक गाय कहने को तो बाक़ायदा पालतू है, लेकिन उसके पालनहार उसके साथ कितनी क्रूरता से पेश आते हैं, ये ज़रा सड़कों पर भटक रही उन ‘माताओं’ से पूछिए. उन्हें कूड़े-कचरों में मुँह मारकर पॉलीथीन की थैलियों समेत सड़े-गले को खाकर अपना पेट पालना पड़ता है. गायों का बुढ़ापा जितना कष्टकारी जीवन शायद ही किसी और प्राणी का होता हो. पता नहीं, हमारे धार्मिक ठेकेदारों को दुनिया के इस सबसे निरीह प्राणी पर कब तरस आएगा? हमारे धार्मिक और सियासी नेता, चिन्तक, विचारक और विद्वान सामाजिक चेतना को लेकर किस सीमा तक ढोंग कर सकते हैं, इसका क़यास तक कोई नहीं लगा सकता. आज माँसाहार, पशु-वध जैसे विषयों को लेकर ऐसी बेचैनी दिखायी जा रही है, मानो यही देश की सबसे बड़ी चुनौती है. अफ़सोस की बात ये है कि सारी बहस से वैज्ञानिक और प्रगतिशील दृष्टिकोण नदारद है. ख़्वाहिश ये नहीं है कि हम अपनी विकृतियों को दूर करें. तमन्ना तो ये है कि कैसे हम दस-बीस सदी पीछे चले जाएँ! जीवन्त समाज में तार्किक बहस ज़रूर होनी चाहिए. लेकिन इस नज़रिये के साथ कि हम उनकी बातों को भी समझें-बूझें जो हमसे अलग सोचते हैं. बहस का मक़सद विषय को गहराई से समझने का होना चाहिए, न कि कटुता बढ़ने का.      

आरक्षण की अवधारणा

आखिर क्या हैं आरक्षण ??
आरक्षण की कहानी देश में तब शुरू हुई थी जब 1882 में हंटर
आयोग बना। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा
ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा
तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की
मांग की थी।
बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू था।
सन 1891 में त्रावणकोर के सामंत ने जब रियासत की
नौकरियों में स्थानीय योग्य लोगों को दरकिनार कर विदेशियों
को नौकरी देने की मनमानी शुरू की तो उनके खिलाफ प्रदर्शन
हुए तथा स्थानीय लोगों ने अपने लिए आरक्षण की मांग उठाई।
1901 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू
महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया।
1908 में अंग्रेजों द्वारा पहली बार देश के प्रशासन में
हिस्सेदारी निभाने वाली जातियों और समुदायों के लिए
आरक्षण शुरू किया।
1909 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान
किया गया।
1919 में मोंटाग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया जिसमें
आरक्षण के भी प्रावधान थे।
1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत,
गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16
प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/
ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए
8 प्रतिशत आरक्षण दिया।
बी आर आंबेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के लिए सन्
1942 में सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित
जातियों के लिए आरक्षण की मांग की थी।
1950 में अांबेडकर की कोशिशों से संविधान की धारा 330
और 332 के अंतर्गत यह प्रावधान तय हुआ कि लोकसभा में
और राज्यों की विधानसभाओं में इनके लिये कुछ सीटें आरक्षित
रखी जायेंगी ।
आजाद भारत के संविधान में यह सुनिश्चित किया गया कि
नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान तथा धर्म के आधार पर
किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं बरता जाएगा साथ ही
सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित और
अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं
रखी गईं।
राजशेखरैया ने अपने लेख ‘डॉ. आंबेडकर एण्ड पालिटिकल
मोबिलाइजेशन ऍाफ द शेड्यूल कॉस्ट्स’ (1979) में कहा है कि
डॉ. आंबेडकर दलितों को स्वावलंबी बनाना चाहते थे। यही
आश्चर्यजनक कारण है कि संविधान सभा में दलितों के
आरक्षण पर जितना जोर सरदार पटेल ने दिया उतना डॉ.
आंबेडकर ने नहीं।
डॉ. रामगोपाल सिंह अपने शोध ग्रंथ ‘डॉ. भीमराव आंबेडकर के
सामाजिक विचार‘ में कहते हैं कि ‘कदाचित उनका सोचना था कि
एक तो आरक्षण स्थायी नहीं है और न इसे स्थायी करना
उचित है और यह परावलंबन को बढ़ावा देता है जो कि डॉ.
आंबेडकर के दलितों को स्वावलंबी बनाने की अवधारणा का
विरोधी था।'
तब डॉ अम्बेडकर ने स्वयं कहा था कि- “दस साल में यह
समीक्षा हो कि जिनको आरक्षण दिया जा रहा है क्या उनकी
स्थिति में कुछ सुधार हुआ कि नहीं? उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप
में कहा यदि आरक्षण से यदि किसी वर्ग का विकास हो जाता
है तो उसके आगे कि पीढ़ी को इस व्यवस्था का लाभ नही देना
चाहिए क्योकि आरक्षण का मतलब बैसाखी नही है जिसके
सहारे आजीवन जिंदगी जिया जाये,यह तो मात्र एक आधार है
विकसित होने का |”
महात्मा गांधी ने 'हरिजन' के 12 दिसंबर 1936 के संस्करण में
लिखा कि धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना
अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और
सरकारी मदद केवल उसी को मिलनी चाहिए कि जो सामाजिक
स्तर पर पिछड़ा हुआ हो।
इसी तरह 26 मई 1949 को जब पंडित जवाहर लाल नेहरू
कांस्टिट्वेंट असेंबली में भाषण दे रहे थे तो उन्होंने जोर देकर
कहा था कि यदि हम किसी अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देंगे
तो उससे समाज का संतुलन बिगड़ेगा। ऐसा आरक्षण देने से
भाई-भाई के बीच दरार पैदा हो जाएगी। आरक्षण के मुद्दे पर
बनी कमिटी की रिपोर्ट के आधार पर।
22 दिसंबर, 1949 को जब धारा 292 और 294 के तहत
मतदान कराया गया था तो उस वक्त सात में से पांच वोट
आरक्षण के खिलाफ पड़े थे। मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-
उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई
लालजी ने आरक्षण के विरोध में वोट डाला था।
भारतीय संविधान ने जो आरक्षण की व्यव्यस्था उत्पत्ति काल
में दी थी उसका एक मात्र उद्देश्य कमजोर और दबे कुचले लोगों
के जीवन स्तर की ऊपर उठाना था। लेकिन देश के राजनेताओं
की सोच अंग्रेजों की सोच से भी ज्यादा गन्दी निकली।
आरक्षण का समय समाप्त होने के बाद भी अपनी व्यक्तिगत
कुंठा को तृप्त करने के लिए वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की
सिफारिशें न सिर्फ अपनी मर्जी से करवाई बल्कि उन्हें लागू भी
किया।
उस समय सारे सवर्ण छात्रों ने विधान-सभा और संसद के
सामने आत्मदाह किये थे। नैनी जेल में न जाने कितने ही छात्रों
को कैद करके यातनाएं दी गई थी। कितनों का कोई अता-पता ही
नहीं चला।
तब से लेकर आज तक एक ऐसी व्यवस्था कायम कर दी गई कि
ऊंची जातियों के कमजोर हों या मेधावी सभी विद्यार्थी और
नवयुवक इसे ढोने के लिए विवश हैं।
1953 में तो कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में एक नया वर्ग
उभरकर सामने आया OBC यानी अदर बैकवर्ड क्लास। इसने
भी कोढ़ में खाज का काम किया। बिना परिश्रम किये सफलता
पाने के सपनों में कुछ और लोग भी जुड़ गये।
साल 2006 में तो शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण इस कदर बढा
कि वह 95% के नजदीक ही पहुंच गया था।
2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी वित्तपोषित संस्थानों में
27% ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही
ठहराया पर सम्पन्न तबके को इससे बहर रखने को कहा ।
आज संविधान को लागू हुए 65 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और
दलितों का आरक्षण भी 10 वर्षों से बढ़कर 65 वर्ष पूर्ण कर
चुका है किन्तु क्या दलित समाज स्वावलंबी बन पाया?
सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यपालिका को निर्देश दिया था कि
वह बराबर नजर रखें कि आरक्षण का वास्तविक लाभ किसे
मिल रहा है।
परन्तु वास्तविकता ये है कि जातिगत आरक्षण का सारा लाभ
तो वैसे लोग ले लेते हैं जिनके पास सबकुछ है और जिन्हे
आरक्षण की ज़रूरत ही नहीं है।
पिछड़े वर्गों के हजारों-लाखों व्यक्ति वर्तमान उच्च पदों पर हैं।
कुछ अत्यन्त धनवान हैं, कुछ करोड़पति अरबपति हैं, फिर भी वे
और उनके बच्चे आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे
सम्पन्न लोगों के लिए आरक्षण सुविधाएँ कहाँ तक न्यायोचित
है?
कुछ हिन्दू जो मुस्लिम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं,
अर्थात् सामान्य वर्ग में आ चुके हैं, फिर भी वे आरक्षण नीति
के अन्तर्गत अनुचित रूप से विभिन्न सुविधाओं का लाभ उठा रहे
हैं।
इतिहास में तो बहुत कुछ हुआ है उसका रोना लेकर अगर हम
आज भी रोते रहे तो देश कैसे आगे बढ़ेगा?
वर्तमान में तो युवा देश उन सब बातों को पीछे छोड़ कर आगे
बढ़ रहा है परन्तु ये आरक्षण भोगी लोग सिर्फ़ अपने
व्यक्तिगत् स्वार्थ के चलते जातियों के नाम पर देश को तोड़ने
की बात करते है। इतिहास में ये हुआ और ये हुआ इस तरह की
काल्पनिक बातों का हवाला देकर देश को दीमक की तरह
खोखला कर रहे है।
धीरे धीरे जातिवाद खत्म हो रहा है। परन्तु ये लोग उसे खत्म
नहीं होने देंगे क्यूँकि ये लोग जानते है कि अगर शोर ना मचाया
तो कुछ पीढ़ियों के बाद आने वाली सन्तति भूल जायेगी कि
जाति क्या होती है। परन्तु इन लोगों को डर है कि ये होने के
बाद कही आरक्षण कि मलाई हाथ से ना निकाल जाए और
जाति के नाम पर चलने वाले वोट बैंक बंद ना हो जाए। ऐसे लोग
अपने ख़ुद के उद्धार के लिए जातिवाद को जीवित रखने का
प्रयास कर रहे हैं ।
इन्हें बिना परिश्रम के जाति प्रमाण पत्र के सहारे पद चाहिये।
भले ही अपने दायित्वों का निर्वाह नही कर पाये क्युंकि
योग्यता तो होती नही। फिर देश का नाश हो या सत्यानाश इन्हे
कोई फर्क नही पड़ता ।
जातिवाद देश को तोड़ने का काम करता है जोड़ने का नहीं। ये
बात इन लोगों की समझ में नही आएगी क्यूँकि समझने लायक
क्षमता ही नही है। वैसे भी जब किसी को बिना किए सब कुछ
मिलने लगता है तो मेहनत करने से हर कोई जी चुराने लगता है
और वह आधार तलाश करने लगता है जिसके सहारे उसे वो सब
ऐसे ही मिलता रहे। यही आधार आज के आरक्षण भोगी तलाश
रहे है। कोई मनु को गाली दे रहा है तो कोई ब्राह्मणों को ! कोई
हिंदू धर्म को ! तो कोई पुराणों को ! कुछ लोग वेदों को तो कुछ
लोग भगवान को भी ! परन्तु ख़ुद के अन्दर झाँकने का ना तो
सामर्थ्य है और ना ही इच्छाशक्ति !
आज स्थिति यह है कि यदि आप केवल इतना ही पूछ लें कि
आरक्षण कब खत्म होगा, तो तुरंत आपको दलित-विरोधी की
उपाधि से लाद दिया जाएगा।
कब तक इस प्रकार हम लगातार निम्न से निम्तर स्तर पर
गिरते जाएँगे। सरकारी कार्य-प्रणाली का कुशलता स्तर
लगातार नीचे गिरता जा रहा है, जिसका असर पूरे देश के साथ-
साथ इन पिछड़े वर्ग के लोगों पर भी पड़ रहा है। सार्वजनिक
बहस का स्तर और पैमाना भी गिरता चला जा रहा है। शिक्षण
संस्थानों और सिविल सेवाओं की कुशलता एवं गुणवत्ता का
स्तर क्या हो गया है ये वहाँ जाने से ही पता लग जाता है
अंबेडकर एक बुद्धिमान व्यक्ति थे। वो जानते थे कि ये
आरक्षण बाद में नासूर बन सकता है इसलिए उन्होंने इसे कुछ
वर्षो के लिए लागू किया था जिससे कुछ पिछड़े हुए लोग समान
धारा में आ सके। अंबेडकर ने ही इसे संविधान में हमेशा के लिए
लागू क्यूँ नहीं किया?
सत्य तो यह है कि जिस तरह से शराबी को शराब कि लत लग
जाती है इसी तरह आरक्षण भोगियों को इसकी लत लग गयीं है
अब ये इसे चाह कर भी नही छोड़ सकते । क्यूँकि बिना योग्यता
के सब कुछ जो मिल जाता है तो पढ़ने कि जरूरत ही कहाँ है। हर
किसी को बहाना चाहिए होता है।
अगर पिछड़ी जाति का होने की वजह से नौकरी नही मिलती तो
अंबेडकर इतने बड़े पद पर नही पहुँच पाते।
नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था का और चाहे जो हाल हुआ
हो, पर इसका एक स्पष्ट असर यह पड़ा कि इसके चलते समाज
के समान रूप से विकास का मकसद खत्म हो गया। और तो और
अब तो रिजर्व सीटों के लिए योग्य उमीदवार तक नहीं मिलते
हैं। रिजर्व सीटें सालों-साल से खाली रहती चली आई हैं। इससे
न केवल सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों का नुकसान हुआ है,
बल्कि सरकारी क्षेत्रों में काम की भी हानि हुई है।
1993 में आईआईटी, मद्रास के निदेशक पी. वी. इंदिरेशन और
आईआईटी, दिल्ली के निदेशक एन. सी. निगम ने अपनी एक
रिपोर्ट में बताया था कि अनुसूचित जाति और जनजाति की
पचास फीसदी सीटें आईआईटी में खाली रह जाती हैं। आज भी
आरक्षण के पश्चात् यू.पी.एस.सी, पी.एस.सी एवं अन्य पदों
पर न्यूनतम योग्यता वाले अभ्यार्थी नहीं मिल रहे हैं और कई
पद रिक्त रखना पड़ रहा है|
यदि आरक्षण का भूत इसी तरह जीवित रहा तो इससे एक बड़ा
नुकसान यह हो जाएगा कि जो थोड़े-बहुत संघर्षशील लोग आज
अपने बल पर मुख्यधारा में मौजूद दिखते हैं, आरक्षण मिलने की
स्थिति में वे मेहनत करना छोड़ सकते हैं। इसके अलावा अभी
जिन गैर-आरक्षित निजी संस्थाओं में कुछ दरवाजे पिछड़ों के
लिए खुले हुए हैं, खतरा है कि वहां उनसे से कहा जाए कि बेहतर
होगा कि वे वहां जाएं, जहां उन्हें आरक्षण हासिल है।
आज जब भारत तरक्की की राह पर आगे बढ रहा है तो उसे फिर
से पीछे धकेलने की साजिश है ये।समाज को दो हिस्सों मे बाँटने
की साजिश है।आजादी के छः दशक बाद भी यदि हम आरक्षण
की राजनीति करते रहे तो लानत है हम पर।
डॉ अम्बेडकर ने ही यह कहा था आरक्षण बैसाखी नही है।
ये भी सच है कि बहुत सी पिछड़ी जाति के लोग अभी भी मुख्य
धारा मे शामिल होने से वंचित रह गये हैं और उनको आरक्षण
की ज़रूरत है पर इतने साल आरक्षण होने के वावजूद भी वो
वंचित क्यों रह गये है इसकी वजह जानने की कोशिश की किसी
ने? नहीं? इसका कारण है जागरूकता का अभाव जो कि सही
शिक्षा से ही संभव है और ग़रीबी जिसकी वजह से वो शिक्षित
नहीं हो पा रहे. और ऐसे लोग सिर्फ़ निचली जातियों मे नहीं
बल्कि ऊँची जातियों में भी हैं। तो उनको आरक्षण क्यों नहीं .?
आरक्षण से
किसी को नौकरी या पदोन्नति मिल सकती है, लेकिन
कार्यकुशलता व पद की गरिमा बनाए रखने के लिए वो प्रतिभा
कहाँ से लायेंगे, क्योंकि योग्यता किसी बाजार में
नहीं बिकती।
आज आरक्षण का जो धर्म और जाति पर आधारित ढांचा है वह
पूरा का पूरा निरर्थक लगता है। यदि आरक्षण देना ही है तो
जातियों का अंतर खत्म कर देना चाहिए। आरक्षण सिर्फ
गरीबों को दिया जाना चाहिए, भले ही वे किसी भी जाति के
क्यों न हों...??