Sunday, 13 September 2015

आरक्षण की अवधारणा

आखिर क्या हैं आरक्षण ??
आरक्षण की कहानी देश में तब शुरू हुई थी जब 1882 में हंटर
आयोग बना। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा
ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा
तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की
मांग की थी।
बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू था।
सन 1891 में त्रावणकोर के सामंत ने जब रियासत की
नौकरियों में स्थानीय योग्य लोगों को दरकिनार कर विदेशियों
को नौकरी देने की मनमानी शुरू की तो उनके खिलाफ प्रदर्शन
हुए तथा स्थानीय लोगों ने अपने लिए आरक्षण की मांग उठाई।
1901 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू
महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया।
1908 में अंग्रेजों द्वारा पहली बार देश के प्रशासन में
हिस्सेदारी निभाने वाली जातियों और समुदायों के लिए
आरक्षण शुरू किया।
1909 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान
किया गया।
1919 में मोंटाग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया जिसमें
आरक्षण के भी प्रावधान थे।
1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत,
गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16
प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/
ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए
8 प्रतिशत आरक्षण दिया।
बी आर आंबेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के लिए सन्
1942 में सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित
जातियों के लिए आरक्षण की मांग की थी।
1950 में अांबेडकर की कोशिशों से संविधान की धारा 330
और 332 के अंतर्गत यह प्रावधान तय हुआ कि लोकसभा में
और राज्यों की विधानसभाओं में इनके लिये कुछ सीटें आरक्षित
रखी जायेंगी ।
आजाद भारत के संविधान में यह सुनिश्चित किया गया कि
नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान तथा धर्म के आधार पर
किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं बरता जाएगा साथ ही
सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित और
अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं
रखी गईं।
राजशेखरैया ने अपने लेख ‘डॉ. आंबेडकर एण्ड पालिटिकल
मोबिलाइजेशन ऍाफ द शेड्यूल कॉस्ट्स’ (1979) में कहा है कि
डॉ. आंबेडकर दलितों को स्वावलंबी बनाना चाहते थे। यही
आश्चर्यजनक कारण है कि संविधान सभा में दलितों के
आरक्षण पर जितना जोर सरदार पटेल ने दिया उतना डॉ.
आंबेडकर ने नहीं।
डॉ. रामगोपाल सिंह अपने शोध ग्रंथ ‘डॉ. भीमराव आंबेडकर के
सामाजिक विचार‘ में कहते हैं कि ‘कदाचित उनका सोचना था कि
एक तो आरक्षण स्थायी नहीं है और न इसे स्थायी करना
उचित है और यह परावलंबन को बढ़ावा देता है जो कि डॉ.
आंबेडकर के दलितों को स्वावलंबी बनाने की अवधारणा का
विरोधी था।'
तब डॉ अम्बेडकर ने स्वयं कहा था कि- “दस साल में यह
समीक्षा हो कि जिनको आरक्षण दिया जा रहा है क्या उनकी
स्थिति में कुछ सुधार हुआ कि नहीं? उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप
में कहा यदि आरक्षण से यदि किसी वर्ग का विकास हो जाता
है तो उसके आगे कि पीढ़ी को इस व्यवस्था का लाभ नही देना
चाहिए क्योकि आरक्षण का मतलब बैसाखी नही है जिसके
सहारे आजीवन जिंदगी जिया जाये,यह तो मात्र एक आधार है
विकसित होने का |”
महात्मा गांधी ने 'हरिजन' के 12 दिसंबर 1936 के संस्करण में
लिखा कि धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना
अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और
सरकारी मदद केवल उसी को मिलनी चाहिए कि जो सामाजिक
स्तर पर पिछड़ा हुआ हो।
इसी तरह 26 मई 1949 को जब पंडित जवाहर लाल नेहरू
कांस्टिट्वेंट असेंबली में भाषण दे रहे थे तो उन्होंने जोर देकर
कहा था कि यदि हम किसी अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देंगे
तो उससे समाज का संतुलन बिगड़ेगा। ऐसा आरक्षण देने से
भाई-भाई के बीच दरार पैदा हो जाएगी। आरक्षण के मुद्दे पर
बनी कमिटी की रिपोर्ट के आधार पर।
22 दिसंबर, 1949 को जब धारा 292 और 294 के तहत
मतदान कराया गया था तो उस वक्त सात में से पांच वोट
आरक्षण के खिलाफ पड़े थे। मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-
उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई
लालजी ने आरक्षण के विरोध में वोट डाला था।
भारतीय संविधान ने जो आरक्षण की व्यव्यस्था उत्पत्ति काल
में दी थी उसका एक मात्र उद्देश्य कमजोर और दबे कुचले लोगों
के जीवन स्तर की ऊपर उठाना था। लेकिन देश के राजनेताओं
की सोच अंग्रेजों की सोच से भी ज्यादा गन्दी निकली।
आरक्षण का समय समाप्त होने के बाद भी अपनी व्यक्तिगत
कुंठा को तृप्त करने के लिए वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की
सिफारिशें न सिर्फ अपनी मर्जी से करवाई बल्कि उन्हें लागू भी
किया।
उस समय सारे सवर्ण छात्रों ने विधान-सभा और संसद के
सामने आत्मदाह किये थे। नैनी जेल में न जाने कितने ही छात्रों
को कैद करके यातनाएं दी गई थी। कितनों का कोई अता-पता ही
नहीं चला।
तब से लेकर आज तक एक ऐसी व्यवस्था कायम कर दी गई कि
ऊंची जातियों के कमजोर हों या मेधावी सभी विद्यार्थी और
नवयुवक इसे ढोने के लिए विवश हैं।
1953 में तो कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में एक नया वर्ग
उभरकर सामने आया OBC यानी अदर बैकवर्ड क्लास। इसने
भी कोढ़ में खाज का काम किया। बिना परिश्रम किये सफलता
पाने के सपनों में कुछ और लोग भी जुड़ गये।
साल 2006 में तो शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण इस कदर बढा
कि वह 95% के नजदीक ही पहुंच गया था।
2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी वित्तपोषित संस्थानों में
27% ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही
ठहराया पर सम्पन्न तबके को इससे बहर रखने को कहा ।
आज संविधान को लागू हुए 65 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और
दलितों का आरक्षण भी 10 वर्षों से बढ़कर 65 वर्ष पूर्ण कर
चुका है किन्तु क्या दलित समाज स्वावलंबी बन पाया?
सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यपालिका को निर्देश दिया था कि
वह बराबर नजर रखें कि आरक्षण का वास्तविक लाभ किसे
मिल रहा है।
परन्तु वास्तविकता ये है कि जातिगत आरक्षण का सारा लाभ
तो वैसे लोग ले लेते हैं जिनके पास सबकुछ है और जिन्हे
आरक्षण की ज़रूरत ही नहीं है।
पिछड़े वर्गों के हजारों-लाखों व्यक्ति वर्तमान उच्च पदों पर हैं।
कुछ अत्यन्त धनवान हैं, कुछ करोड़पति अरबपति हैं, फिर भी वे
और उनके बच्चे आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे
सम्पन्न लोगों के लिए आरक्षण सुविधाएँ कहाँ तक न्यायोचित
है?
कुछ हिन्दू जो मुस्लिम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं,
अर्थात् सामान्य वर्ग में आ चुके हैं, फिर भी वे आरक्षण नीति
के अन्तर्गत अनुचित रूप से विभिन्न सुविधाओं का लाभ उठा रहे
हैं।
इतिहास में तो बहुत कुछ हुआ है उसका रोना लेकर अगर हम
आज भी रोते रहे तो देश कैसे आगे बढ़ेगा?
वर्तमान में तो युवा देश उन सब बातों को पीछे छोड़ कर आगे
बढ़ रहा है परन्तु ये आरक्षण भोगी लोग सिर्फ़ अपने
व्यक्तिगत् स्वार्थ के चलते जातियों के नाम पर देश को तोड़ने
की बात करते है। इतिहास में ये हुआ और ये हुआ इस तरह की
काल्पनिक बातों का हवाला देकर देश को दीमक की तरह
खोखला कर रहे है।
धीरे धीरे जातिवाद खत्म हो रहा है। परन्तु ये लोग उसे खत्म
नहीं होने देंगे क्यूँकि ये लोग जानते है कि अगर शोर ना मचाया
तो कुछ पीढ़ियों के बाद आने वाली सन्तति भूल जायेगी कि
जाति क्या होती है। परन्तु इन लोगों को डर है कि ये होने के
बाद कही आरक्षण कि मलाई हाथ से ना निकाल जाए और
जाति के नाम पर चलने वाले वोट बैंक बंद ना हो जाए। ऐसे लोग
अपने ख़ुद के उद्धार के लिए जातिवाद को जीवित रखने का
प्रयास कर रहे हैं ।
इन्हें बिना परिश्रम के जाति प्रमाण पत्र के सहारे पद चाहिये।
भले ही अपने दायित्वों का निर्वाह नही कर पाये क्युंकि
योग्यता तो होती नही। फिर देश का नाश हो या सत्यानाश इन्हे
कोई फर्क नही पड़ता ।
जातिवाद देश को तोड़ने का काम करता है जोड़ने का नहीं। ये
बात इन लोगों की समझ में नही आएगी क्यूँकि समझने लायक
क्षमता ही नही है। वैसे भी जब किसी को बिना किए सब कुछ
मिलने लगता है तो मेहनत करने से हर कोई जी चुराने लगता है
और वह आधार तलाश करने लगता है जिसके सहारे उसे वो सब
ऐसे ही मिलता रहे। यही आधार आज के आरक्षण भोगी तलाश
रहे है। कोई मनु को गाली दे रहा है तो कोई ब्राह्मणों को ! कोई
हिंदू धर्म को ! तो कोई पुराणों को ! कुछ लोग वेदों को तो कुछ
लोग भगवान को भी ! परन्तु ख़ुद के अन्दर झाँकने का ना तो
सामर्थ्य है और ना ही इच्छाशक्ति !
आज स्थिति यह है कि यदि आप केवल इतना ही पूछ लें कि
आरक्षण कब खत्म होगा, तो तुरंत आपको दलित-विरोधी की
उपाधि से लाद दिया जाएगा।
कब तक इस प्रकार हम लगातार निम्न से निम्तर स्तर पर
गिरते जाएँगे। सरकारी कार्य-प्रणाली का कुशलता स्तर
लगातार नीचे गिरता जा रहा है, जिसका असर पूरे देश के साथ-
साथ इन पिछड़े वर्ग के लोगों पर भी पड़ रहा है। सार्वजनिक
बहस का स्तर और पैमाना भी गिरता चला जा रहा है। शिक्षण
संस्थानों और सिविल सेवाओं की कुशलता एवं गुणवत्ता का
स्तर क्या हो गया है ये वहाँ जाने से ही पता लग जाता है
अंबेडकर एक बुद्धिमान व्यक्ति थे। वो जानते थे कि ये
आरक्षण बाद में नासूर बन सकता है इसलिए उन्होंने इसे कुछ
वर्षो के लिए लागू किया था जिससे कुछ पिछड़े हुए लोग समान
धारा में आ सके। अंबेडकर ने ही इसे संविधान में हमेशा के लिए
लागू क्यूँ नहीं किया?
सत्य तो यह है कि जिस तरह से शराबी को शराब कि लत लग
जाती है इसी तरह आरक्षण भोगियों को इसकी लत लग गयीं है
अब ये इसे चाह कर भी नही छोड़ सकते । क्यूँकि बिना योग्यता
के सब कुछ जो मिल जाता है तो पढ़ने कि जरूरत ही कहाँ है। हर
किसी को बहाना चाहिए होता है।
अगर पिछड़ी जाति का होने की वजह से नौकरी नही मिलती तो
अंबेडकर इतने बड़े पद पर नही पहुँच पाते।
नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था का और चाहे जो हाल हुआ
हो, पर इसका एक स्पष्ट असर यह पड़ा कि इसके चलते समाज
के समान रूप से विकास का मकसद खत्म हो गया। और तो और
अब तो रिजर्व सीटों के लिए योग्य उमीदवार तक नहीं मिलते
हैं। रिजर्व सीटें सालों-साल से खाली रहती चली आई हैं। इससे
न केवल सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों का नुकसान हुआ है,
बल्कि सरकारी क्षेत्रों में काम की भी हानि हुई है।
1993 में आईआईटी, मद्रास के निदेशक पी. वी. इंदिरेशन और
आईआईटी, दिल्ली के निदेशक एन. सी. निगम ने अपनी एक
रिपोर्ट में बताया था कि अनुसूचित जाति और जनजाति की
पचास फीसदी सीटें आईआईटी में खाली रह जाती हैं। आज भी
आरक्षण के पश्चात् यू.पी.एस.सी, पी.एस.सी एवं अन्य पदों
पर न्यूनतम योग्यता वाले अभ्यार्थी नहीं मिल रहे हैं और कई
पद रिक्त रखना पड़ रहा है|
यदि आरक्षण का भूत इसी तरह जीवित रहा तो इससे एक बड़ा
नुकसान यह हो जाएगा कि जो थोड़े-बहुत संघर्षशील लोग आज
अपने बल पर मुख्यधारा में मौजूद दिखते हैं, आरक्षण मिलने की
स्थिति में वे मेहनत करना छोड़ सकते हैं। इसके अलावा अभी
जिन गैर-आरक्षित निजी संस्थाओं में कुछ दरवाजे पिछड़ों के
लिए खुले हुए हैं, खतरा है कि वहां उनसे से कहा जाए कि बेहतर
होगा कि वे वहां जाएं, जहां उन्हें आरक्षण हासिल है।
आज जब भारत तरक्की की राह पर आगे बढ रहा है तो उसे फिर
से पीछे धकेलने की साजिश है ये।समाज को दो हिस्सों मे बाँटने
की साजिश है।आजादी के छः दशक बाद भी यदि हम आरक्षण
की राजनीति करते रहे तो लानत है हम पर।
डॉ अम्बेडकर ने ही यह कहा था आरक्षण बैसाखी नही है।
ये भी सच है कि बहुत सी पिछड़ी जाति के लोग अभी भी मुख्य
धारा मे शामिल होने से वंचित रह गये हैं और उनको आरक्षण
की ज़रूरत है पर इतने साल आरक्षण होने के वावजूद भी वो
वंचित क्यों रह गये है इसकी वजह जानने की कोशिश की किसी
ने? नहीं? इसका कारण है जागरूकता का अभाव जो कि सही
शिक्षा से ही संभव है और ग़रीबी जिसकी वजह से वो शिक्षित
नहीं हो पा रहे. और ऐसे लोग सिर्फ़ निचली जातियों मे नहीं
बल्कि ऊँची जातियों में भी हैं। तो उनको आरक्षण क्यों नहीं .?
आरक्षण से
किसी को नौकरी या पदोन्नति मिल सकती है, लेकिन
कार्यकुशलता व पद की गरिमा बनाए रखने के लिए वो प्रतिभा
कहाँ से लायेंगे, क्योंकि योग्यता किसी बाजार में
नहीं बिकती।
आज आरक्षण का जो धर्म और जाति पर आधारित ढांचा है वह
पूरा का पूरा निरर्थक लगता है। यदि आरक्षण देना ही है तो
जातियों का अंतर खत्म कर देना चाहिए। आरक्षण सिर्फ
गरीबों को दिया जाना चाहिए, भले ही वे किसी भी जाति के
क्यों न हों...??

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