Sunday, 19 March 2017

चंपारण मे महात्मा का उदय

चंपारण : महात्मा का उदय

भारत की जंगे-आजादी के इतिहास में चंपारण सत्याग्रह को मील का पत्थर माना जाता है। इसी आंदोलन की वजह से देशवासियों ने मोहनदास करमचंद गांधी को ‘महात्मा’ के तौर पर पहचाना। गांधी ने यहीं से अहिंसा को एक काम
 को एक कामयाब विचार के रूप में रोपा

एक समाज में वह प्रयोग का हिस्सा भर है और अपने मूल समाज में उसकी पहचान खो सी गई है। (प्रतीकात्मक चित्र)

वैसे तो इतिहास की हर घटना की शताब्दी आती है और उसे सौ साल पुराना बना कर चली जाती है। हम भी इतिहास को बीते समय और गुजरे लोगों का दस्तावेज भर मानते हैं। लेकिन इतिहास बीतता नहीं है, नए रूप और संदर्भ में बार-बार लौटता है और हमें मजबूर करता है कि हम अपनी आंखें खोलें और अपने परिवेश को पहचानें! इतिहास के कुछ पन्ने ऐसे होते हैं कि वे जब भी आपको या आप उनको छूते-खोलते हैं तो आपको कुछ नया बना कर जाते हैं। इसे पारस-स्पर्श कहते हैं। इतिहास का पारस-स्पर्श! चंपारण का गांधी-अध्याय ऐसा ही पारस है! इस पारस के स्पर्श से ही गांधी को वह मिला और वे वह बने जिसकी खोज थी उन्हें, यानी इतिहास ने जिसके लिए उन्हें गढ़ा था। और वह गांधी का स्पर्श ही था कि जिसने अहिल्या जैसे पाषाणवत् चंपारण को धधकता शोला बना दिया था। यह सब क्या था और कैसे हुआ था?

15 अप्रैल,1917 को राजकुमार शुक्ल जैसे एक अनाम-से आदमी के साथ मोहनदास करमचंद गांधी नाम का आदमी चंपारण आया था। मोहनदास वर्षों बाद स्वदेश लौटे थे, चंपारण का नाम भी नहीं सुना था और नील की खेती के बारे में न के बराबर जानते थे। कानूनी पढ़ाई के लिए इंग्लैंड से जो विदेश-यात्रा शुरू हुई थी वही उन्हें दक्षिण अफ्रीका ले गई और फिर वहीं अवस्थित भी कर आई थी सपरिवार! सब कुछ ठीकठाक ही चल रहा था। वकालत भी जम गई थी कि मॉरित्सबर्ग स्टेशन पर उस मूढ़मति टिकटचेकर ने उन्हें डिब्बे से उतार फेंकने का कारनामा कर डाला। अगर उस टिकटचेकर को जरा भी इल्म होता कि इस काले को डब्बे से उठा फेंकने से गोरों के साम्राज्य की नींव ही उखड़ जाएगी तो वह ऐसा कभी न करता! लेकिन उसने बैरिस्टर एमके गांधी को भीतर से मोहनदास करमचंद गांधी कर दिया जो धीरे-धीरे चोला उतारता-उतारता कब महात्मा गांधी और फिर बापू बन गया, इसकी खोज में आज भी इतिहास भटक ही रहा है! इसलिए यह याद रखने जैसा तथ्य है कि गांधीजी जब चंपारण गए तब तक वे एकदम परिपक्व सत्याग्रही बन चुके थे।

दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का हथियार उन्हें मिला, जिसे धारदार बना कर उन्होंने रंग और जातीय भेद के खिलाफ इस्तेमाल भी किया, अपने जीवन में भी और जीवन की दिशा में भी कितने फेर-फार किए। परिवार को अपनी तरह से जीने की दिशा में ढाला, अपने आश्रम बनाए, उसके अनुरूप जीने की पद्धतियां विकसित कीं, अपनी लड़ाई के पक्ष में जनमत बनाने के लिए इंग्लैंड तक की यात्रा की और विदेशी सरकार से लेकर विदेशी अखबार और विदेशी सामाज के लोगों तक को साथ लेने की कला विकसित की। जनरल स्मट्स के साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत का वह नया रिश्ता बनाया जिसमें नागरिक और उसकी सरकार एक हैसियत पर आ सकती है। चंपारण आने से पहले गांधी युद्धभूमि में उतर चुके थे। जूलू विद्रोह के दौरान सार्जेंट मेजर एमके गांधी के नाम की पट्टी लगा कर भारतीयों की टुकड़ी के कमांडर बन कर वे युद्ध के मैदान में गोलियों के बीच भागते-दौड़ते घायल सिपाहियों की तिमारदारी कर चुकेथे। ‘हिंद-स्वराज’ नाम की कालजयी पुस्तिका लिख चुके थे। दक्षिण अफ्रीका का अपना संघर्ष जीत कर भारत आए तो रही-सही कसर गुरु गोखले ने पूरी कर दी। वचनबद्ध गांधी पूरे साल भर तक ‘आंख खुली, मुंह बंद’ कर सारा भारत घूमते रहे। देश देखा, लोग देखे, प्रकृति देखी और देखा हर मान-अपमान को सह कर जीने का भारतीय स्वभाव! इसी भारत-दर्शन के क्रम में वे यह पहचान सके कि सैकड़ों साल की गुलामी अब अवस्था नहीं, मन:स्थिति में बदल चुकी है।

राजकुमार शुक्ल गांधी को नील किसानों की दुरवस्था दिखाने के लिए चंपारण ले गए। गांधी ने यहां आ कर वह सब देखा जो गुलामी की बीमारी के विषाणु थे। यह जानना बड़ा मजेदार भी है और आंखें खोलने वाला भी कि वे यहां आकर अंग्रेजों से, निलहों से कोई लड़ाई लड़ते ही नहीं हैं। वे लड़ाई शुरू करते हैं गुलामी की मानसिकता से। वे रात-दिन गुलाम भारतीयों को उनकी गुलामी का अहसास कराते रहे। बिहार के पहले दर्जे के वकीलों की फौज उनके साथ आ जुटी। बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, रामनवमी प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, धरणीधर बाबू आदि सभी गांधी से सुरक्षित दूरी रख कर, गांधी के करीब आते गए। ये तब के वक्त में दस हजार रुपए तक की फीस वसूलने वाले वकील थे। गांधी ऐसी वकालत और ऐसी कमाई का संसार छोड़ कर ही आए थे तो इनकी चमक-दमक से अप्रभावित इन्हें समझाते थे कि लड़ाई न अधूरी होती है और न अधूरेमन से लड़ी जाती है। प्रोफेसर कृपलानी भी थे आसपास लेकिन वे गांधी को ताड़ने में ही अधिक लगे थे।

गांधी ने अपने मतलब के लोगों को गुजरात, महाराष्ट्र आदि से बुलाया और सफाई से रहना, पढ़ना, खाना बनाना आदि शुरू करवाते हैं। सबसे पहले सबकी रसोई एक साथ, एक ही जगह से बने- वे इसका आग्रह करते हैं। हर बड़ा वकील अपने साथ सेवक, रसोइया ले कर आया होता है। गांधी धीरे से इसे अनावश्यक बताते हैं और समझाते हैं कि सब मिल कर एक-दूसरे की मदद से वे सारे काम कर सकते हैं जिनके लिए हम इन पर अािश्रत हैं। वे कहते ही नहीं, बल्कि खुद ही करने भी लगते हैं। उस दिन तो हद ही हो गई जिस दिन दीनबंधु सीएफ एंड्रूज को (जो तब दीनबंधु नहीं कहलाते थे) मोतिहारी से बाहर जाना था और उनके लिए खाना बनाने वाला कोई नहीं था। जैसे-तैसे रोटी और उबले आलू का खाना बना और एंड्रूज खाने बैठे तभी गांधीजी उन्हें देखने आ गए और यह देख कर पानी-पानी हो गए कि एंड्रूज एकदम कच्ची रोटी खा रहे थे, जो उनकी थाली में धर दी गई थी। गांधी लोगों पर नाराज हुए और फिर खुद ही रोटियां बनाने बैठे। वे रोटियां बेलत रहे, करीने से सेंकते रहे और कितने की मान-दुलार से एंड्रूज की थाली में डालते गए। बस, उस दिन से रसोई भी और नौकर भी एक हो गए। इन सबमें कहीं भी न अंग्रेज आते हैं और न उनसे लड़ाई आती है।

लेकिन गांधी के चंपारण पहुंचने से पहले ही उनकी कीर्ति वहां पहुंच चुकी थी। जनमानस में बनने वाली छवि अहिंसक लड़ाई का बड़ा प्रभावी हथियार होती है। दक्षिण अफ्रीका में गांधी ने क्या किया, इसे न जानने वाले भी यह जान गए कि यह चमत्कारी आदमी है। रास्ते भर किसान ही नहीं, सरकारी अधिकारी भी गांधी को देखने आते रहते रहे। जितने लोग आते जाते, बातें उतने ही रंग की फैलती जातीं। अंग्रेज अधिकारी और प्रशासन हैरान था कि यह आदमी करना क्या चाहता है और यह जो करना चाहता है वह इसे करने दिया जाए तो पता नहीं यह क्या-क्या करने लग जाएगा! दक्षिण अफ्रीका में इनके आका इस आदमी के जाल में इसी तरह जा फंसे थे, वह कहानी गांधी के लोगों से ज्यादा अच्छी तरह सरकारी लोगों को पता थी।

15 अप्रैल को गांधी मोतिहारी पहुंचे और बाबू गोरख प्रसाद के घर पर उन्हें ठहराया गया। अंग्रेजों के बात-व्यवहार का गांधी को दक्षिण अफ्रीका से अनुभव था। इसलिए वे तुरंत गिरफ्तारी की संभावना मान कर तैयार थे। उसी आधार पर सामान की गठरी बनी थी। सब जानना चाहते थे कि गांधी कल से सत्याग्रह कैसे शुरू करेंगे! गांधी एकदम ठंडे स्वर में बोले, ‘कल मैं जसवलपट्टी गांव जाऊंगा!’ सब एक-दूसरे से पूछते हैं-क्यों, वहां क्यों? पता चलता है कि वहां के एक प्रतिष्ठित गृहस्थ पर अत्याचार की ताजा खबर आई है! सब बड़े लोग कुछ परेशान हो जाते हैं। अत्याचार कहां नहीं है कि आप जसवलपट्टी जा रहे हैं! मोतिहारी मुख्य शहर है। यहां से आपको प्रचार मिलेगा न कि जसवलपट्टी से!

रात बीती। सुबह गांधी जसवलपट्टी जाने के लिए तैयार। धरणीधर बाबू और रामनवमी बाबू साथ निकले। सवारी मंगाई गई हाथी। जलता हुआ सूरज सिर पर है और गर्म हवा झुलसा रही थी। गांधी ने कभी हाथी की सवारी की नहीं थी और वह भी तीन आदमी एक साथ! लगभग टंगी हुई हालत में सफर शुरू। और गांधी की बात भी शुरू हुई। वे जब से मोतिहारी आए थे, यहां की महिलाओं की दशा उन्हें मथ रही थी। इसलिए इसकी ही चर्चा उन्होंने निकाली और कहा यह कि यह तो हमारी महिलाओं को मार ही देगा! अंग्रेज अधिकारी भी यही समझ रहे थे कि यह आदमी पता नहीं कब, कहां और कैसे हमें मार ही देगा और इसलिए बगैर कोई वक्त खोए वे ही आगे बढ़ कर गांधी से लड़ाई मोल लेते। रास्ते में हाथी से उतर कर बैलगाड़ी, बैलगाड़ी से उतर कर इक्का और इक्का से उतर कर टमटम की यात्रा करवाता है प्रशासन और फिर जिला छोड़ कर चले जाने का फरमान थमा देता है। ‘मुझे इसका अंदेशा तो था ही!’ कह कर गांधी चंपारण के जिलाधिकारी का आदेशपत्र लेते हैं। लिखा है, ‘आपसे अशांति का खतरा है!’ गांधी यह आदेश मानने से सीधे ही इनकार कर देते हैं। वे अपने साथियों में पहले से बना कर लाया वह हिदायतनामा बांट देते हैं जिसमें लिखा है कि अगर उनकी गिरफ्तारी होती है तो किसे क्या करना है। यह सब तो अभूतपूर्व था!

अगले दिन, अगला नजारा कचहरी में खुला। बेतार से बात सारे चंपारण में फैल गई थी कि अब गांधीजी का चमत्कार होगा। कचहरी में किसानों का रेला उमड़ा पड़ा था! सरकारी वकील पूरी तैयारी से आया था कि इस विदेशपलट वकील को धूल चटा देगा! जज ने पूछा कि गांधी साहब आपका वकील कौन है, तो गांधीजी ने जवाब दिया कोई भी नहीं! फिर ? गांधी बोले, ‘ मैंने जिलाधिकारी के नोटिस का जवाब भेज दिया है! अदालत में सन्नाटा खिंच गया! जज बोला, ‘वह जवाब अदालत में पहुंचा नहीं है।’ गांधीजी ने अपने जवाब का कागज निकाला और पढ़ना शुरू कर दिया। कचहरी में इतना सन्नाटा था कि गांधीजी के हाथ की सरसरहाट तक सुनाई दे रही थी।

और उन्होंने कहा कि अपने देश में कहीं भी आने-जाने और काम करने की आजादी पर वे किसी की, कैसी भी बंदिश कबूल नहीं करेंगे। हां, जिलाधिकारी के ऐसे आदेश को न मानने का अपराध मैं स्वीकार करता हूं और उसके लिए सजा की मांग भी करता हूं। गांधीजी का लिखा जवाब पूरा हुआ और इस खेमे में और उस खेमे में सारा कुछ उलट-पुलट गया। न्यायालय ने ऐसा अपराधी नहीं देखा था जो बचने की कोशिश ही नहीं कर रहा था। देशी-विदेशी सारे वकीलों के लिए यह हैरतअंगेज था कि यह आदमी अपने लिए सजा की मांग कर रहा है जबकि कानूनी आधार पर सजा का कोई मामला बनता ही नहीं है। सरकार, प्रशासन सभी अपने ही बुनेजाल में उलझते जा रहे थे। जज ने कहा कि जमानत ले लो तो जवाब मिला, ‘मेरे पास जमानत भरने के पैसे नहीं हैं!’ जज ने फिर कहा कि बस इतना कह दो कि तुम जिला छोड़ दोगे और फिर यहां नहीं आओगे तो हम मुकदमा बंद कर देंगे। गांधीजी ने कहा, ‘यह कैसे हो सकता है! आपने जेल दी तो उससे छूटने के बाद मैं स्थाई रूप से यही चंपारण में अपना घर बना लूंगा।’ यह सब चला और फिर कहीं दिल्ली से निर्देश आया कि इस आदमी से उलझो मत, मामले को आगे मत बढ़ाओ और गांधी को अपना काम करने दो। बस, यही सरकारी आदेश वह कुंजी बन गई, जिससे सत्याग्रह का ताला खुलता है। ताला क्या खुलता है सारे वकील, प्रोफेसर, युवा, किसान-मजदूर सब खिंचते चले आए और जितने करीब आए, उतने ही बदले।

गांधी सबसे वादा भी ले लेते हैं कि जेल जाने की घड़ी आएगी तो कोई पीछे नहीं हटेगा। इन नामी वकीलों ने अब तक दूसरों को जेल भिजवाने का या जेल जाने से बचाने का ही काम किया था, खुद जेल जाने की तो कल्पना भी नहीं की थी। जेल जाना बदनामी की बात भी थी। गांधी सबको समझा रहे थे कि सच की लड़ाई में जेल जाना सम्मान की ही बात नहीं है बल्कि जरूरी बात भी है। और जब वे यह कह रहे थो तो सभी जानते थे वे खुद दक्षिण अफ्रीका की जेलों में रह कर और जीत कर आए हैं।
किसानों से बयान दर्ज करवाने का काम किसी युद्ध की तैयारी जैसा चला। देश भर से आए विभिन्न भाषाओं के लोग, बिहार के लोगों की मदद से बयान दर्ज करने के काम में जुटे। गांधी जैसे एक वकालतखाना ही चला रहे हों। तथ्यों का सच्चा और संपूर्ण आकलन कैसे एक अकाट्य हथियार बन गया-‘डेटा कलेक्शन’ की आज की पेशेवर दुनिया में चंपारण इसका पदार्थ-पाठ बन सकता है।

गांधी यह भी पहचान गए कि नील की खेती के पीछे अंग्रेजों की दमनकारी नीतियां तो हैं ही, नकदी फसल का किसानों का आकर्षण भी है। इस लोभ में वे अपनी कृषि-प्रकृति के खिलाफ जा कर काम करने को तैयार हुए। आज खेती का सबसे बड़ा संकट यह है कि हमने इसे प्रकृति के साथ रासायनिक युद्ध में बदल दिया है जबकि खेती है तो शरीर-विज्ञान ! चंपारण सत्याग्रह का यह पहलू बहुत उभरा नहीं क्योंकि मैदान में लड़ाई कुछ और ही चल रही थी। लेकिन चंपारण के काम की दिशा का जब विस्तार हुआ और गांधी का सत्याग्रह पूरी तरह खिला तब गांधी इन सारे सवालों को छूने में कामयाब हुए।
आज हमारी खेती-किसानी जब लाचारी और आत्महत्या का दूसरा नाम बन गई है, हमें चंपारण सत्याग्रह की इस दिशा का ध्यान करना चाहिए। गांधी और चंपारण दोनों ही आज के हिंदुस्तान की दशा सुधारने और दिशा दिखाने का काम एक साथ कर सकते हैं। शर्त इतनी ही है कि हम दशा सुधारने और दिशा खोजने के बारे में ईमानदार तो हों।

सफल सत्याग्रह
मोहनदास करमचंद गांधी ने 1917 में संचालित चंपारण सत्याग्रह न सिर्फ भारतीय इतिहास बल्कि विश्व इतिहास की एक ऐसी घटना है, जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खुली चुनौती दी थी। वे दस अप्रैल, 1917 को जब बिहार आए तो उनका एक मात्र मकसद चंपारण के किसानों की समस्याओं को समझना, उसका निदान और नील के धब्बों को मिटाना था। एक स्थानीय पीड़ित किसान राजकुमार शुक्ल कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन (1916) में अंग्रेजों द्वारा जबरन नील की खेती कराई जाने के संदर्भ में शिकायत की थी। शुक्ल का आग्रह था कि गांधीजी इस आंदोलन का नेतृत्व करें। गांधीजी ने इस समस्या को न सिर्फ गंभीरतापूर्वक समझा, बल्कि इस दिशा में आगे बढ़े।

गांधी ने 15 अप्रैल, 1917 को मोतिहारी पहुंचकर 2900 गांवों के तेरह हजार किसानों की स्थिति का जायजा लिया। 1916 में लगभग 21,900 एकड़ जमीन पर आसामीवार, जिरात, तीनकठिया आदि प्रथा लागू थी। चंपारण के किसानों से मड़वन, फगुआही, दषहरी, सट्टा, सिंगराहट, धोड़ावन, लटियावन, शरहवेशी, दस्तूरी, तवान, खुश्की समेत करीब छियालीस प्रकार के ‘अवैध कर’ वसूले जाते थे। कर वसूली की विधि भी बर्बर और अमानवीय थी। नील की खेती से भूमि बंजर होने का एक अलग भय था।

निलहों के विरुद्ध राजकुमार शुक्ल 1914 से ही आंदोलन चला रहे थे। लेकिन 1917 में गांधीजी के सशक्त हस्तक्षेप ने इसे व्यापक जन आंदोलन बनाया। आंदोलन की अनूठी प्रवृत्ति के कारण इसे राष्ट्रीय बनाने में गांधीजी सफल रहे। 1867 में पंडौल का नील आंदोलन क्षेत्रीय था, जबकि 1908 का आंदोलन राज्य स्तरीय। गांधी के संगठित नेतृत्व ने चंपारण के किसानों के भीतर जबर्दस्त आत्मविष्वास और सफलता का संचार किया। ब्रिटिश सरकार ने गांधी के इस पहल को विफल बनाने के लिए धारा-144 के तहत सार्वजनिक शांति भंग करने का नोटिस भी भेजा। लेकिन गांधीजी इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। गांधीजी के शांतिपूर्ण प्रयास का अनुचित ढंग से दमन करना ब्रिटिष सरकार के लिए भी कठिन सिद्ध हो रहा था। उधर, गांधीजी की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती चली जा रही थी। तत्कालीन समाचार पत्रों ने चंपारण में गांधीजी की सफलता को काफी प्रमुखता से प्रकाशित किया। निलहे बौखला उठे। गांधीजी को फंसाने के लिए तुरकौलिया के ओल्हा फैक्टरी में आग लगा दी गई। लेकिन गांधीजी इससे प्रभावित नहीं हुए।

बाध्यता के कारण बिहार के तत्कालीन डिप्टी गर्वनर एडवर्ड गेट ने गांधीजी को वार्ता के लिए बुलाया। किसानों की समस्याओं की जांच के लिए ‘चंपारण एग्रेरियन कमेटी’ बनाई गई। सरकार ने गांधीजी को भी इस समिति का सदस्य बनाया। इस समिति की अनुशंसाओं के आधार पर तीनकठिया व्यवस्था की समाप्ति कर दी गई। किसानों के लगान में कमी लाई गई और उन्हें क्षतिपूर्ति का धन भी मिला। हालांकि, किसानों की समस्याओं के निवारण के लिए ये उपाय काफी न थे। फिर भी पहली बार शांतिपूर्ण जनविरोध के माध्यम से सरकार को सीमित मांगों को स्वीकार करने पर सहमत कर लेना एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। सत्याग्रह का भारत के राष्ट्रीय स्तर पर यह पहला प्रयोग इस लिहाज से काफी सफल रहा। इसके बाद नील की खेती जमींदारों के लिए लाभदायक नहीं रही और शीघ्र ही चंपारण से नील कोठियों के मालिकों का पलायन प्रारंभ हो गया।

इस आंदोलन का दूरगामी लाभ यह हुआ कि इस क्षेत्र में विकास की प्रारंभिक पहल हुई, जिसके तहत कई पाठशाला, चिकित्सालय, खादी संस्था और आश्रम स्थापित किए गए। इस आंदोलन का एक अन्य लाभ यह भी हुआ कि चंपारण से ही मोहनदास करमचंद गांधी का ‘महात्मा’ बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ आमजनों को अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए सहज हथियार (सत्याग्रह) मिला। चंपारण सत्याग्रह को आज के संदर्भ में देखना चाहिए। देश के किसान आत्महत्या के लिए विवश हैं। नई आर्थिक नीति के प्रभाव से आर्थिक विषमता बढ़ी है। तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर जातिगत विद्वेष लगातार बढ़ रहा है और राजनीति में वंषवाद पुख्ता होता चला जा रहा है। महात्मा गांधी के संदेश-सत्य, अहिंसा, प्रेम, सदाषयता आदि को लोग नजर अंदाज कर रहे हैं। इस दिशा में राज्य और केंद्र सरकार के साथ-साथ विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों को पहल करने की आवश्यकता है।

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